वृक्ष का तना स्वर्ग का प्रतीक है, जो उस उत्तम बीज, जिसे परमात्मा कहा जाता है, से उत्पन्न हुआ है | वह लिखित इतिहास से पूर्व का स्वर्णिम युग, जहाँ धारणाएँ, संस्कृति, भाषा, न्यायिक व्यवस्था - सबमें एकता थी| वह समय एक श्रेष्ठ सभ्यता का समय था, जहाँ सामंजस्य-पूर्ण जीवन शैली में सिद्धांत और व्यवहार में कोई अंतर नहीं था | उस युग के लोगों को किसी प्रकार की कमी नहीं थी - वे पूर्णतः सम्पूर्ण थे |
बीज और वृक्ष के तने की समीपता यह दर्शाती है कि उस युग में मनुष्य आत्माओं और भगवान के गुणों में समानता थी | उनका जीवन सत्यता एवं बुद्धिमत्ता के सिद्धांतों पर आधारित था | अनादि सत्य यह है कि हम आत्मायें हैं ना कि शरीर। ऐसी आत्माओं को कथा कहानियों में याद किया जाता है, और उनको भगवान भगवती कहा जाता है। बहुत थोड़े लोग इस बात को समझ पाते हैं कि ऐसी दिव्य मनुष्यात्मायें एक समय में इस धरती पर रहती थी।
वृद्धि दर वृद्धि
जैसे-जैसे वृक्ष की वृद्धि होती जाती है वैसे वैसे उसका तना स्वाभाविक रूप से आकार में बड़ा हो जाता है। वैसे ही मनुष्य की जनसंख्या भी बढ़ती जाती है। अनेकानेक पत्ते (हरेक मनुष्यात्मा) वृक्ष में जुड़ते जाते हैं। वो आत्माओं की दुनिया से इस धरती पर अपना पार्ट बजाने के लिए आते हैं। जिस प्रकार कली की पंखुड़ियाँ कुछ समय बाद खिल जाती हैं, उसी प्रकार देवी-देवताएँ भी अपनी सीमाओं को पार कर, इस भौतिक दुनिया में तल्लीन हो जाते हैं | आत्मा के मंदिर - शरीर - के प्रति आकर्षण, दुनियावी संबंधों, भौतिक पदार्थों आदि से वे अधिकाधिक जुड़ते जाते हैं | वे इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं कि वे अपनी असली पहचान खो रहे हैं – वृद्धि के क्रम में आत्मा अपने आपको भूल रही हैं। वे अपने असली स्वरूप पवित्रता, शान्ति और सत्यता को भूल जाते हैं।
स्वर्ग की विस्मृति
चेतना के स्तर पर इस परिवर्तन के कारण, शक्तियों, पवित्रता तथा नैतिकता और अनैतिकता के प्रति निर्णय लेने की क्षमता में उल्लेखनीए गिरावट आती है | दिव्यता भंग होती जाती है, स्वर्ग की विस्मृति होती है। शनै-शनै कुछ अजीब और अस्वस्थ करने वाली भावनायें उत्पन्न होने लगती हैं। धीरे-धीरे, सुख और शांति के स्थान पर उन्हे कुछ अन्य ही अनुभव होने लगती हैं | कुछ अजीब और अस्वस्थ करने वाली भावनायें उत्पन्न होने लगती हैं। और फिर वैमनस्य, अधर्म, असत्यता और अशान्ति बढ़ती जाती है। बहुत सारे पत्तों को यह कीड़े खाने लगते हैं और मनुष्य के कर्म, बढ़ती हुई लालच की मांग से प्रभावित होते हैं। उन्हें और अधिक सम्पन्नता, पद और शक्ति की आवश्यकता महसूस होती है। आत्मा - अब स्वयं पर नियंत्रण करने वाली न रह, स्वयं की इच्छाओं की गुलाम बन जाती है |
नव शाखाओं का उभरना
अंततः, जब वृक्ष का तना शाखाओं में विभाजित होने लगता है, अर्थात, जब वह अपनी अखंडता गवाँ देता है, तब एक ओर मनुष्य-बुद्धि सत्य की खोज करना प्रारंभ करती है एवं दूसरी ओर उसका मन आश्वासन पाने को व्याकुल हो जाता है | मनुष्य के अवचेतन मन की गहरी सतह से परमात्म बीज की स्मृति फिर से उभरने लगती है | यह सत्य की खोज को तीव्र कर देती है | इसके परिणाम स्वरूप, महान पैग़ंबरों का क्रमानुसार अवतरण होता है - इब्राहिम, बुद्ध, ईसा मसीह और मुहम्मद | ये सभी सच्चाई, जागरूकता, आशा, क्षमा और अद्वैतवाद के पथ पर लौटने को प्रेरित करते हैं | मनुष्य परिवार के वृक्ष पर हरेक धर्मात्मा के द्वारा एक-एक धर्म की बहुत ही मजबूत शाखा निर्मित की जाती है। मगर आज, उन धर्मो द्वारा स्थापित किए गये सिद्धांत, शिक्षाएँ, प्रेम और समर्पणभाव ही मतभेद के प्रमुख कारण बन गये हैं |
अराजकता एवं भ्रम की स्थिति
जैसे - जैसे मानव परिवार तीव्र गति से वृद्धि को पाता जाता है, वैसे - वैसे शाखाओं पर नये पत्तों की उत्पत्ति होती जाती है | स्व - बोध और वास्तविकता की खोज विभिन्न मान्यताओं को जन्म देती है | इसके परिणामस्वरूप अव्यवस्थता, भिन्नता और विवादों की उत्पत्ति होती है | हरेक बड़ी शाखा अन्य छोटी-छोटी शाखाओं और उप शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। अनेक धर्म, सम्प्रदाय और पंथ उत्पन्न होते हैं। इसी के दौरान मनुष्य वृक्ष के तने के बीचोबीच शुरुआत होती है भक्ति की और मनुष्यों के बीच कुछ गुरु अपना आधिपत्य जमाने लगते हैं। अब मनुष्य परिवार रंग, जाति, धर्म और मान्यताओं के आधार पर विभाजित होने लगता है। तदानुसार बढ़ रही प्राकृतिक आपदाएँ, मानसिक व शारीरिक रोग, दरिद्रता और अकाल मृत्यु...ये सभी इसकी दुष्क्रियता को प्रतिबिंबित करती हैं |
वृक्ष अपनी वृद्धि के चरम पर पहुंचता है
निरंतर बढ़ रही इस अशांति के दौर में अधिकाधिक मनुष्यों का रुझान ईश्वर की ओर हो जाता है | परंतु इस ज्ञान के अभाव में कि 'वह कौन है' अथवा 'उसका क्या कार्य है' , वे उसे खोज नही पाते हैं | इसी कारण वे उसके अस्तित्व पर ही संदेह करने लगते हैं | सत्य की खोज केवल भौतिक प्रमाण एकत्रित करने पर केंद्रित हो जाती है | अपने प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिक स्तर पर ढूँदने के कारण, विज्ञान एवं तकनीकी जगत में अदभुत प्रगति होने लगती है | इसी दौरान, शाखाओं में, धर्म के प्रति कट्टरवादिता बढ़ती जाती है | वे, जो दृढ़ता से परंपरागत आस्थाओं से जुड़े हैं, अपनी विचारधाराओं की रक्षा करने के लिए, हिंसात्मक मार्ग अपनाने पर मजबूर हो जाते हैं | धर्म, भाषा, संस्कृति अपनी मूल दिव्यता से, सचमुच, बहुत दूर भटक जाती है |
वृक्ष अपनी वृद्धि के चरम पर पहुंच जाता है, उसकी जड़े जड़जड़ीभूत हो जाती हैं। एक दूसरे में फंसी हुई बहुत ही विस्तृत शाखाओं के बीच तना मुश्किल से दिख पाता है। हरेक आत्मा एक सर्द पेड़ की एक टहनी पर एक लाचार पत्ते की तरह असहाय लटकी हुई है।
परमात्मा बीज के द्वारा वृक्ष का पुनर्निर्माण
परंतु, वृद्ध मानव-वृक्ष के मुरझाने से पूर्व, परमात्मा, जो इस वृक्ष का रचयता (बीज) है, इसे नवजीवन प्रदान करता है | वह इस बात का खुलासा करता है कि जो पहले था, वह पुनः कैसे हो सकता है | परमत्म-बीज के द्वारा जागृत हो कर और उसके द्वारा शक्ति और पालना पा कर, उस एक परमात्मा के साथ अपने संबंधों को पुनर्स्थापित के, मनुष्यातमयें इस वृक्ष की नयी जड़ - एक नयी सॅपलिंग के रूप में प्रत्यक्ष होती है....और इस तरह से मानव परिवार का पुनःनिर्माण होता है |
अपने आप को जड़ों में बसी एक आत्मा के रूप का चित्रीकरण करें एवं इस मनुष्य-आत्मा के बीज - उस परमत्म शक्ति - के करीब बैठने की कल्पना करें | इस बीज में जीवन के अनादि सुखों का सार है - इस सार को ग्रहण करें | मानव-परिवार रूपी वृक्ष के ज्ञान की छत्र-छाया के नीचे रहने से सर्व शुभ-कामनायें पूर्ण होती हैं |